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श्रीमद्भगवद गीता के बारे में कभी भी कोई ये न कह सकेगा : इदं इथं (यह इतना ही है )


श्रीमद्भगवद गीता के बारे में कभी भी कोई ये न कह सकेगा :

इदं इथं (यह इतना ही है )

गीता के माहात्म्य का बखान पूरा कोई न कर सकेगा। शास्त्र सदा शेष ही रहते हैं उन्हें अशेष नहीं किया जा सकता। गीता का प्रादुर्भाव क्यों हुआ ?

भगवान् के अस्तित्व पर प्रश्न चिन्ह था अर्जुन का विषाद जो सदैव ही भगवान् के साथ रहते थे। अर्जुन को विषाद मुक्त करने के लिए भगावन ने अपने समस्त आंतरिक बल को गीता के रूप में प्रकट कर दिया। 

कृष्ण ऐसे प्रथम गुरु हैं जो शान्ति से शिष्य अर्जुन का प्रवचन गीता के पूरे प्रथम अध्याय में मनोयोग से सुनते हैं।जब तक अर्जुन खाली नहीं हो जाता भगवान् मौन बने सुनते रहते हैं।  

अर्जुन वह खाली चषक है जाम है जिसके आगे सुराही झुक जाती है उसे भरने के लिए। भगवद गीता संवाद करके विवाद को मिटाती है ,वाद समाप्त हो जाता है। विषाद नष्ट हो जाता है। विषाद जब भी जागे परमात्मा का पवित्र नाम उनके सात्विक उपदेशों को जीवन में धारण करने की कल्पना आपका विषाद दूर करेगी। 
ज्ञान के बिना मुक्ति नहीं होती। लेकिन स्वाध्याय और प्रवचन श्रवण में प्रमाद नहीं होना चाहिए। 

प्रवचन सुनने के बाद आत्म निरीक्षण करना भी ज़रूरी है। दोष को यदि यह पता हो कि स्वामी आत्म निरीक्षण कर रहा है तो दोष दूर हो जाता है।कथा श्रवण के बाद मनन  का फल है।मनन के बाद लगातार निरंतर मनन (निदिध्यासन )का फल है। 
अर्जुन बोलता चला जाता है दूसरा अध्याय आ जाता है भगवान् मौन रहते हैं। अर्जुन भगवान् के मौन को सह नहीं पाता है। जो भूल उससे हो गई वह समझ में आने लगी। अर्जुन भगवान् को कहता है महाराज अब तो बोलो। क्यों बोलूँ ?

मैं आपके प्रपन्न में हो गया हूँ। उसे अपने किसी भी बल का किंचित मात्रा भी अभिमान नहीं रहता। समर्पण करता है प्रपन्न अर्जुन भगवान् के सामने। अर्जुन कहता है मेरे भीतर मोह जाग गया था भीष्म पिता के प्रति अन्य बंधू बांधवों के प्रति ,मैं अपना शौर्य ,क्षत्री धर्म भूल गया था। 
द्रौपदी के काम भी उसकी प्रपन्नता ही आई थी ,सम्पन्न भीष्मपितामह ,नकुल, सहदेव ,युधिष्ठिर,अर्जुन आदिक  काम नहीं आये जब उसका चीर हरण किया गया। भगवान् को उसने इसी प्रपन्नता  में  याद किया वह वस्त्र अवतार बन के  आ आ गये।  

https://www.youtube.com/watch?v=OXgyFfiQUFE

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